भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड लूई माउंटबेटन जिन्होंने देश की लगभग 565
रियासतों को भारत में मिलाने में सरदार बल्लभ भाई पटेल का पूर्ण समर्थन तो किया परंतु
इन रियासतों के समावेशन में दौरान इन्होंने अपनी एक बात रखी जिसमें कहा की भारत की रियासतें
आज अनेकोनेक संस्कृतियों, समाजों, क्षेत्रीय परंपराओं व कुछ हद तक धार्मिक आधारों में पूरी तरह विभाजित है
भारत में इन रियासतों का समावेशन आज भारत के नक़्शे को बड़ा व ख़ूबसूरत तो बना देगा
लेकिन क्षेत्रीय विभिन्नताएँ, देश की आने वाली सरकारों को उनके राष्ट्रीय
हित के कामों को करने में बाधा डाल सकती है।
थोड़े समय के बाद ही तमिलनाडू आँध्रप्रदेश राज्यों ने भाषा के आधार पर राज्य बनाने कि माँग की
तात्कालिक सरकार के अनदेखा किए जाने पर विशाल आंदोलन किया
और सरकार को प्रथक राज्य बनाने पर विवश किया ।
आज स्थिति कुछ एसी ही दिखाई देती है
जब पूरे देश में एक समान शिक्षा की बात कही जाती है
विभिन्न संस्कृतियों व क्षेत्रीय विषमताओं के कारण ये एक ज्वलंत मुद्दा बन जाता है
जबकि यहाँ बात एक बच्चे की शिक्षा के सम्बंध में की जा रही है
भारतीय संविधान के भाग 3 के अनुच्छेद 21क के तहत देश के 6 से 14 वर्ष की उम्र के सभी बच्चों
को नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा देने की बात कही गई है।
शिक्षा के इस अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा तो दिया गया परंतु इसे
अनुच्छेद 14 व 15 तथा संविधान की प्रस्तावना के साथ मिलाकर कभी देखा व समझा नहीं गया ।
अनुच्छेद 14 व 15 जिसमें समानता के अधिकार की बात कही गई है।
समानता के अधिकार को ध्यान में रखते हुए – उच्च गुणवत्ता की
एकसमान शिक्षा प्राप्त करना देश के सभी बच्चों का विशेष अधिकार है ।
इसमें भेदभाव कि भावना किसी भी सरकार में नहीं होनी चाहिए
वो या तो राज्य सरकार हो या केन्द्र सरकार। इस मुद्दे को आसानी से अमल में
लाया जा सकता अगर ये मुद्दा केवल केंद्रीय सूची में होता।
परंतु शिक्षा के विषय को संविधान निर्माताओ ने क्षेत्रीय संस्कृति को जीवित
रखने हेतु समवर्ती सूची में रखा, जिस से एक समान शिक्षा के विषय पर निर्णय
राज्य के हाथो में भी चला जाता है।
बच्चों को मिले इस अधिकार में किसी भी प्रकार का भेदभाव या रोक किसी भी देश के
विकास के लिए श्राप ही होगा। शिक्षा एक ऐसा निवेश है जिसका परिणाम आने वाले समय में
दिखाई पड़ता है ना की तुरंत। इस विषय किसी भी परिस्थिति में राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिए।
बच्चे भविष्य के नागरिक ही नहीं, बल्कि धरती के भविष्य भी होते है।
अनुच्छेद 21क के बिना सभी अधिकार अर्थहीन से प्रतीत होते है।
एक समान शिक्षा संविधान कि प्रस्तावना के विभिन्न भावो जैसे
पंथनिरपेक्ष, समाजवादी, लोकतंत्रात्मक गणराज्य, के साथ साथ आपस में
सामान विचार, अभिव्यक्ति, भाईचारे, की भावना जैसे विशेष
मूल शब्दों की प्रक्रति को बनाये रखने में मदगार साबित होगी।
प्रत्येक राज्य ने अपनी अलग शिक्षा पद्धति अपनाई है
सबके अलग राज्य शिक्षा बोर्ड है जिसमें किसी राज्य का बच्चा कोई
और शिक्षा ग्रहण कर रहा है तो किसी अन्य राज्य का बच्चा कुछ अलग क़िस्म की शिक्षा ग्रहण कर रहा है।
क्या सभी एक जैसी शिक्षा पाने के अधिकारी नहीं है
या फिर भारत में ही किसी अन्य राज्य में पैदा होना
किसी एक बच्चे के लिए एक तोहफ़ा व किसी दूसरे बच्चे लिए एक श्राप मिलने जैसा है,
इसमें उस बच्चे की क्या ग़लती ?
अगर उस देश की सरकार इस विषय कि बारे में सोचना भी ज़रूरी ना समझे।
हाल ही में भारतीय जनता पार्टी के मध्य प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह
ने इस विषय को गति दी जो एक विचारणीय विषय है जिसमें उन्होंने कहा की
कब तक इसे अनदेखा किया जाएगा प्रत्येक राज्य के बच्चों में शिक्षा के
विषय विभेद नज़र आता जो कि नहीं होना चाहिए उन्होंने अपनी बात आगे
रखते हुए उन्होंने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी)
के पाठ्यक्रम को पूरे देश में लागू करवाने की माँग सरकार से की ।
एक समान शिक्षा का होना भारत में अध्यन कि एकरूपता को भी बढ़ावा देगा
एवं विभिन्न संस्कृतियों को बच्चों के दिमाग में अपनाने के क़ाबिल भी बनाएगा।
आज भारत के अलग अलग राज्यों के छात्रों में आप सांस्कृतिक
विभेद से ग्रसित भावना आसानी से देख सकते है,
जिसमें वो जब कभी भारत कि ही किसी संस्कृति को देखते है
तो उसे देख कर अचंभित होते है,
और बहुत बार इस स्थिति में सांस्कृतिक पक्षपात भी नज़र आता है
जो कि एक स्वस्थ समाज और देश कि लिए अभिशाप है।
एक देश एक शिक्षा, देश की आंतरिक समस्याओं को सुलझाने में विशेष बल देगा
आज भारत अमेरिका से भिन्न राज्यों का संघ तो है ही परंतु
किसी भी कार्य को करने में भारत सरकार के पास शक्ति होने के बाद भी वह पूर्ण रूप से
अपनी शक्ति का उपयोग करने में विफल रहता है इसकी वजह है
विभिन्न संस्कृति के साथ साथ विभिन्न शिक्षा पद्धति और इस विषय का
विपक्ष के द्वारा आसानी से राजनीतिकरण किया जाता है
जो की नहीं किया जाना चाहिए। विपक्ष का हर एक मुद्दों में विरोध करना चाहे वो देश के
हित में हो या अहित में एक अस्वस्थ व पीड़ित राजनीति का होना प्रतीत होता है।
एक समान शिक्षा समाज से अनेक विभिन्नताओं को दूर करने में मददगार साबित हो सकती है
और लोगों के संबंध में सुधार लाने में अहम भूमिका निभा सकती है ये लोगों में सद्भावना,
सदगुण व आपसी संबंधो को सुधार व सुदृढ़ बनाने में मददगार साबित होगी एवं
लोगों की जीवन शैली व विचारों को उच्चतम स्तर पर ले जाने में एक अहम भूमिका अदा करेगी ।
हमारे संविधान में की गई एकसमान समाज की व्याख्या को भी सुनिश्चित करेगी और
देश से धर्मांधता, प्रथकतावादी विचारों व भेदभाव को उत्तेजित करने वाली प्रवत्ति में भी विराम लगाएगी।