मूर्ति नहीं, प्राकृतिक ज्वालाओं की होती है पूजा
यह मंदिर बाकी मंदिरों से बिल्कुल अलग है। यहां किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती, बल्कि पृथ्वी से निकल रही नौ प्राकृतिक ज्वालाओं की पूजा की जाती है।
इन ज्योतियों को महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अंबिका और अंजीदेवी के नाम से जाना जाता है। इनमें सबसे खास ज्वाला महाकाली रूप में मानी जाती है।
राजा भूमि चंद से लेकर महाराजा रणजीत सिंह तक का योगदान
इस मंदिर का निर्माण राजा भूमि चंद ने शुरू कराया था। इसके बाद पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह और हिमाचल के राजा संसारचंद ने 1835 में इसे पूरा कराया। यही वजह है कि यहां हिंदू और सिख दोनों समुदायों की गहरी आस्था है।
अकबर भी रह गया था हैरान
इतिहास में दर्ज है कि बादशाह अकबर जब इस मंदिर के बारे में सुनकर यहां आया, तो उसने ज्वालाओं को बुझाने की कोशिश की। उसने नहरें बनवाईं, लेकिन लाख कोशिश के बाद भी वो इन ज्वालाओं को बुझा नहीं सका।
अकबर ने देवी मां को सवा मन (50 किलो) सोने का छत्र भी चढ़ाया, लेकिन माता ने उसे स्वीकार नहीं किया। कहा जाता है कि वो छत्र गिरकर किसी अन्य धातु में बदल गया। आज भी वो छत्र मंदिर में रखा हुआ है।
अंग्रेज भी नहीं सुलझा पाए रहस्य
अंग्रेजी हुकूमत के समय भी इस मंदिर की ज्वालाओं का रहस्य जानने की कोशिश की गई। अंग्रेज वैज्ञानिक इन ज्वालाओं का स्रोत तलाशते रहे, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। आखिरकार उन्होंने भी मान लिया कि यह कोई प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि ईश्वरीय चमत्कार है।
कैसे पहुंचें ज्वाला देवी मंदिर

यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में है। यहां सड़क और रेलमार्ग दोनों से आसानी से पहुंचा जा सकता है। आप ज्वालाजी रोड रानीताल या पठानकोट से ट्रेन लेकर ज्वालामुखी रोड स्टेशन तक आ सकते हैं। वहां से टैक्सी या बस से मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।