क्राइस्टचर्च – वैश्विक रूप से बढ़ते आतंकवाद के बाद अब नस्लभेदी मानसिकता भी तेजी से फैल रही है। न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर की अल नूर मस्जिद में शुक्रवार को ऑस्ट्रेलिया के ब्रिटिश मूल के युवक ने अंधाधुंध फायरिंग की घटना को अंजाम देने वाले हमलावर श्वेत वर्चस्व की सनक का शिकार था। हमलावर ने गोलीबारी कर कई श्रद्धालुओं को मौत के घाट उतार दिया। 28 वर्षीय हमलावर ब्रेंटन टैरेंट पर श्वेत वर्चस्व {व्हाइट सुप्रीमेसी} कायम करने की सनक सवार थी। व्हाइट सुप्रीमेसी की अवधारणा जातीय राष्ट्रवाद और नाजी जर्मनी में हिटलर की अगुवाई में आर्य कुलवंश के पुनरुत्थान के इर्द गिर्द घूमती है। जिसमें श्वेत लोगों के कष्टों के लिए बाहर से आकर बसे लोगों को जिम्मेदार माना जाता है।
न्यूजीलैंड के हमलावर ने इस आतंकी घटना को अंजाम देने से पहले अपने मैनिफेस्टो ‘दि ग्रेट रिप्लेसमेंट’ में लिखा, ‘आक्रमणकारियों को दिखाना है
कि हमारी भूमि कभी भी उनकी भूमि नहीं होगी, हमारे घर हमारे अपने हैं और जब तक एक श्वेत व्यक्ति रहेगा, तब तक वे कभी जीत नहीं पाएंगे। ये हमारी भूमि है और वे कभी भी हमारे लोगों की जगह नहीं ले पाएंगे।’ कुछ ऐसा ही हिटलर के जमाने में नाजी जर्मनी में भी हुआ था जब उसने आर्य कुलवंश के पुनरुत्थान की मांग की और जर्मनी के सारे कष्टों का दोषी यहूदियों को ठहराया।
नाजी जर्मनी की हार के 70 साल बाद भी जातीय राष्ट्रवादी और व्हाइट सुप्रीमैसिस्ट आंदोलनों का यूरोपीय देशों में पनपना जारी है। इनमें कुछ घोर दक्षिणपंथी राजनीतिक दल, नव-नाजी आंदोलन और गैर राजनीतिक संगठन शामिल हैं। जिनमें कुछ समूह खुलेआम हिंसक श्वेत वर्चस्व कायम करने के पैरोकार हैं, जबकि अन्य लोकलुभावनवाद की आड़ में अपने कट्टरपंथी रुख का प्रचार करते हैं।
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंध के प्रोफेसर चिंतामणी महापात्रा का मानना है कि इस तरह की घटना पहले भी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में होती रही है।
एक तरह से इसे लोन वुल्फ सिंड्रोम कहा जा सकता है, जिसमें हमलावर सोशल मीडिया या मुख्यधारा की मीडिया से प्रभावित होकर इस तरह की घटना को अंजाम देते हैं। इनका सीधा ताल्लुक किसी संगठन से नहीं होता है। इस तरह के व्हाइट सुप्रीमैसिस्ट संगठन यूरोप और अमेरिका में हैं, जो श्वेत वर्चस्व कायम करना चाहते हैं।
प्रोफेसर महापात्रा का कहना है कि न्यूजीलैंड में बड़ी संख्या में भारतीय और एशियाई आबादी रहती है। इसके साथ ही ब्रिटिश मूल के लोग भी वहां काफी संख्या में हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि हमलावर ने मस्जिद में घटना को अंजाम दिया है। अगर वो अन्य एशियाई देशों के अप्रवासियों के खिलाफ होता तो किसी मार्केट या अन्य सार्वजनिक जगह पर जाकर गोलियां चला सकता था। लेकिन उसने खासतौर पर एक धर्म विशेष के लोगों को ही निशाना बनाया है लिहाजा माना जा सकता है कि वो इस्लामी चरमपंथ के खिलाफ हो।
न्यूजीलैंड के हमलावर ने अपने मैनीफेस्टो में लिखा है कि यूरोपीय लोगों की संख्या हर रोज कम होने के साथ वे बूढ़े और कमजोर हो रहे हैं।
उसका कहना है कि हमारी फर्टिलिटी रेट कम है, लेकिन बाहर से आए अप्रवासियों की फर्टिलिटी रेट ज्यादा है लिहाजा एक दिन ये लोग श्वेत लोगों से उनकी भूमि छीन लेंगे। ठीक इसी तरह ही व्हाइट सुप्रीमैसिस्ट संगठन भी दावा करते हैं कि वे अप्रवासियों और जातीय अल्पसंख्यकों द्वारा खड़ी की गई आर्थिक और सांस्कृतिक खतरों से अपनी आजीविका को संरक्षित करके औसत मेहनती यूरोपीय लोगों की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं। प्रो. चिंतामणी महापात्रा का कहना है कि आम तौर पर देखा गया है कि जब इन देशों की आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है तो इस तरह की घटनाएं नहीं होती।
लेकिन ब्रेक्जिट के बाद यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता आने के साथ ही वैश्विक स्तर पर मंदी का दौर चल रहा है।
इसलिए इस तरह के हमले का कारण सांस्कृतिक और आर्थिक अनिश्चितता हो सकता है। यूरोप में कई घोर दक्षिणपंथी दलों ने अप्रवासी विरोधी और विशेष रूप से मुस्लिम-विरोधी जेनोफोबिया {विदेशी लोगों को नापसंद करना}को अपनी पार्टी के प्लेटफार्म पर नैतिक-राष्ट्रवाद की अवधारणा के माध्यम से प्रभावित किया है। इनका विचार है कि एक राष्ट्र को एक जातीयता से बनाया जाना चाहिए। ये दल बहुसंस्कृतिवाद को मूल राष्ट्रीय पहचान के विनाश के लिए एक कोड़ के रूप में देखते हैं।