कोटा, राजस्थान का वो शहर है जिसे देश का सबसे बड़ा कोचिंग हब माना जाता है। हर साल लाखों छात्र यहां आकर आईआईटी और नीट जैसी बड़ी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में यहां एक बहुत ही चिंताजनक ट्रेंड देखने को मिला है — छात्रों की आत्महत्याएं। साल 2025 के सिर्फ छह महीनों में ही 14 छात्र अपनी जान दे चुके हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने जताई नाराजगी
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दो आत्महत्या मामलों की सुनवाई करते हुए राजस्थान सरकार से कड़े सवाल पूछे। कोर्ट ने कहा कि ये बहुत ही गंभीर मामला है और राज्य सरकार को इस पर ठोस कदम उठाने होंगे। कोर्ट ने एफआईआर दर्ज करने में देरी पर नाराजगी जताई और संबंधित पुलिस अफसर को तलब भी किया।
जस्टिस पारदीवाला ने सरकार से पूछा:
“आप एक राज्य के तौर पर क्या कर रहे हैं? ये बच्चे खुदकुशी क्यों कर रहे हैं, और सिर्फ कोटा में ही ऐसा क्यों हो रहा है?”
पिछले सालों के आंकड़े क्या कहते हैं?
कोटा में हर साल आत्महत्या के केस सामने आते रहे हैं। नीचे दिए गए आंकड़े इस समस्या की गंभीरता को दिखाते हैं:
साल | आत्महत्याओं की संख्या |
---|---|
2015 | 18 |
2016 | 17 |
2017 | 7 |
2018 | 20 |
2019 | 18 |
2022 | 15 |
2024 | 17 |
2025 | 14 (अब तक) |
ये आंकड़े बताते हैं कि यह समस्या कोई नई नहीं है, बल्कि पिछले कई सालों से चल रही है।
आख़िर कारण क्या हैं?
छात्रों की आत्महत्या के पीछे कई कारण हो सकते हैं:
- पढ़ाई का दबाव बहुत ज़्यादा होता है। छात्र 12-14 घंटे पढ़ाई करते हैं और हर समय रैंक और नंबर का टेंशन बना रहता है।
- घर से दूर रहने का अकेलापन भी असर करता है।*
- फेल होने का डर इतना बढ़ जाता है कि छात्र खुद को नाकाम मान लेते हैं।
- सही समय पर कोई बात करने वाला या सुनने वाला नहीं होता।
प्रशासन ने क्या कदम उठाए?
सरकार और कोचिंग संस्थानों ने कुछ कदम उठाने की कोशिश की है:
- स्प्रिंग वाले पंखे लगवाए गए हैं, ताकि छात्र फंदा न लगा सकें।
- काउंसलिंग और हेल्पलाइन शुरू की गई हैं, ताकि छात्र अपने मन की बात कह सकें।
- कमज़ोर छात्रों की पहचान के लिए टेस्ट शुरू किए गए हैं, जिससे उन्हें समय पर मदद मिल सके।
- रैंकिंग सिस्टम में बदलाव किया गया है, ताकि छात्र एक-दूसरे से खुद की तुलना न करें।
क्या ये उपाय काफी हैं?
इन उपायों से कुछ हद तक फर्क जरूर पड़ा है, लेकिन ये काफी नहीं हैं। आत्महत्या रोकने के लिए केवल पंखे बदलने से कुछ नहीं होगा। बच्चों को यह समझाना जरूरी है कि नंबर ही सबकुछ नहीं होते। असफलता भी जीवन का हिस्सा है, और इससे उबरना भी मुमकिन है।
माता-पिता और समाज की जिम्मेदारी
माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों से सिर्फ रिजल्ट की बात न करें। उनके साथ समय बिताएं, उन्हें समझें और उनकी भावनाओं को महत्व दें। हर बच्चा अलग होता है और सबके लिए एक जैसा सपना नहीं हो सकता।
आगे क्या किया जाना चाहिए?
सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी ये बताती है कि अब सिर्फ छोटी-मोटी कोशिशों से काम नहीं चलेगा। हमें बच्चों की मानसिक सेहत को पढ़ाई जितना ही जरूरी मानना होगा। कोचिंग संस्थानों, स्कूलों और सरकार — सबको मिलकर ऐसे माहौल की ज़रूरत है जहाँ छात्र खुलकर अपनी बात कह सकें, और उन्हें यह भरोसा हो कि उनकी जिंदगी सिर्फ एक एग्जाम से तय नहीं होती।
निष्कर्ष:
कोटा की ये घटनाएं सिर्फ खबरें नहीं हैं, ये उन बच्चों की कहानियां हैं जो दबाव में आकर टूट गए। अब वक्त आ गया है कि हम बच्चों को सिर्फ डॉक्टर या इंजीनियर बनाने की दौड़ में न धकेलें, बल्कि उन्हें एक खुशहाल और मजबूत इंसान भी बनाएं। सरकार, कोचिंग सेंटर, स्कूल और घर — सभी को मिलकर सोचना होगा, समझना होगा और समय रहते कदम उठाने होंगे।